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Monday 22 April 2013

अध्याय 2 श्लोक 2 - 64 , BG 2 - 64 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 2 श्लोक 64
किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है |

 



अध्याय 2 : गीता का सार

श्लोक 2 . 64

रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्र्चरन् |
आत्मवश्यैर्वि धेयात्माप्रसादधिगच्छति || ६४ ||

 



राग – आसक्ति; द्वेष – तथा वैराग्य से; विमुक्तैः – मुक्त रहने वाले से; तु – लेकिन; विषयान् – इन्द्रियविषयों को; इन्द्रियैः – इन्द्रियों के द्वारा; चरन् – भोगता हुआ; आत्म-वश्यैः – अपने वश में; विधेय-आत्मा – नियमित स्वाधीनता पालक; प्रसादम् – भगवत्कृपा को; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |


 
भावार्थ
किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है |
 
 तात्पर्य


यह पहले ही बताया जा चुका है कि कृत्रिम इन्द्रियों पर बाह्यरूप से नियन्त्रण किया जा सकता है, किन्तु जब तक इन्द्रियाँ भगवान् की दिव्य सेवा में नहीं लगाई जातीं तब तक नीचे गिरने की सम्भावना बनी रहती है | यद्यपि पूर्णतया कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऊपर से विषयी-स्तर पर क्यों न दिखे, किन्तु कृष्णभावनाभावित होने से वह विषय-कर्मों में आसक्त नहीं होता | उसका एकमात्र उद्देश्य तो कृष्ण को प्रसन्न करना रहता है, अन्य कुछ नहीं | अतः वह समस्त आसक्ति तथा विरक्ति से मुक्त होता है | कृष्ण की इच्छा होने पर भक्त सामान्यतया अवांछित कार्य भी कर सकता है, किन्तु यदि कृष्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कार्य को भी नहीं करेगा जिसे वह सामान्य रूप से अपने लिए करता हो | अतः कर्म करना या न करना उसके वश में रहता है क्योंकि वह केवल कृष्ण के निर्देश के अनुसार ही कार्य करता है | यही चेतना भगवान् की अहैतुकी कृपा है, जिसकी पप्राप्ति भक्त को इन्द्रियों में आसक्त होते हुए भी हो सकती है |



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